
एक देश में दो विधान, दो प्रधान
- अरुण जेटली
कश्मीर की दो मुख्यधारा पार्टियां तेजी से अपनी पहचान खोती जा रही हैं। पृथकतावादी और आतंकवादी राज्य के एक हिस्से को भारत से अलग करना चाहते है। लेकिन भारत इसे कभी स्वीकार नहीं करेगा। बहुत साफ तरीके से, पूरे ज़ोर से पृथकतावादियों, आंतंकवादियों और पाकिस्तान को यह संदेश दे दिया है कि आज़ादी की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। यह असंभव है।
दोनों पार्टियों के बयान हैं कि राज्य और राष्ट्र के बीच संवैधानिक कड़ी धारा 35ए के औपचारिक आश्वासन पर ही टिकी हुई है। अगर धारा 35ए नहीं है तो यह कड़ी टूट जाएगी। कुछ लोग तो और आगे बढ़कर कहते हैं कि दोनों संवैधानिक प्रावधान अखंडनीय कड़ी हैं जिसे बनाए रखना ही होगा।
यह तर्क पूरी तरह से अस्वीकार्य है। अक्टूबर 1947 में उस समय जब इस राज्य को शेष भारत में मिलाने के कागजात पर दस्तखत किए गए थे, धारा 35ए नहीं थी। 1950 में जब संविधान लागू हुआ तो यह नहीं थी। 1954 इसे चुपचाप थोप दिया गया था। फिर यह कैसे अनिवार्य संवैधानिक कड़ी है? इस दलील पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। जब सुनवाई चल रही है तो अदालत को डराने के प्रयास क्यों हो रहे हैं? अदालतों के फैसलों से इतिहास को पलटा नहीं जा सकता है। कड़ी टूटने का तर्क तो ठीक वैसा ही अतार्किक है कि अगर ब्रिटिश संसद भारत का स्वतंत्रता कानून वापस ले ले तो हमारी आज़ादी छिन जाएगी।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष का आज का यह बयान कि हम वज़ीर-आज़म और सदर-ए-रियासत के पदों की फिर से वापसी चाहते हैं, दरअसल एक पृथकतावादी मानसिकता तैयार करने की है। ऐसी मांग करने वाले यह नहीं जान पाते कि वे अपने लोगों और देश को कितनी बड़ी चोट पहुंचा रहे हैं। नया भारत किसी भी सरकार को ऐसी भूल करने की इजाजत नहीं देगा।
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