आंतरिक सुरक्षा

Article : "Why Jammu and Kashmir, and New Approach to Terrorism will Remain a Key Political Issue” by Hon'ble Union Minister Shri Arun Jaitley


15-04-2019

दिनांक : अप्रैल 15, 2019

जम्मू-कश्मीर और आतंकवाद के प्रति नया नज़रिया क्यों एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दा बना रहेगा

-अरुण जेटली

चुनाव प्रचार के दौरान जब कभी भी पुलवामा पर आंतकी हमले और बालाकोट पर एयर स्ट्राइक के मुद्दे उठाए जाते हैं तो भारत के विपक्षी दल बैक-फुट पर आ जाते हैं। चुनावी बहसों में राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद पर चर्चा क्यों होती है? यही सवाल विपक्ष पूछता रहता है।

भारत का विपक्ष दलील देता है कि चुनाव असली मुद्दों पर लड़ा जाना चाहिए न कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर। मेरा प्रयास है कि मैं यह दलील दूं कि राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद ऐसे दो मुद्दे हैं जो दीर्घकाल में भारत के लिए चिंता का विषय है। अन्य चुनौतियों का तो जल्दी समाधान हो सकता है।

चुनाव के परंपरागत मुद्दे

भारत में चुनाव के परंपरागत मुद्दे गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन, विकास की दर बढ़ाना, देश के लोगों के जीवन की गुणवत्ता, बेहतर स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा, विश्व स्तरीय इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर की गुणवत्ता में सुधार से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा कई और ऐसे मुद्दे हैं जो नेतृत्व और सार्वजनिक क्षेत्र में ईमानदारी तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत से जुड़े हुए हैं। पिछले पांच वर्षों में भारत तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बनकर दुनिया के एक चमकदार स्पॉट की तरह उभरा हुआ है। इसलिए इन अधूरे कामों को पूरा करने के लिए राज्य को साल दर साल अधिक राजस्व मिल रहा है ताकि अधूरे काम पूरे हो सकें।

1991 में गरीबी उन्मूलन की बहुत ही धीमी रफ्तार की तुलना में उसके बाद के वर्षों में गरीबी तेजी से घटी है। 2011 की जनसंख्या गणना में गरीबी रेखा से नीचे 21.9 प्रतिशत लोग थे। 2021 तक यह संख्या आसानी से 15 प्रतिशत से नीचे चली जाएगी। आने वाले दशकों में हम देखेंगे कि यह काफी खत्म हो गई है और निगेटिव स्तर पर चली जाएगी। शहरीकरण बढ़ेगा, मध्य वर्ग का विस्तार होगा और अर्थव्यवस्था कई गुना बढ़ेगी। इससे नौकरियों की तादाद भी बढ़ेगी और जैसा कि पिछले तीन दशकों में हमने देखा है कि उदारीकृत अर्थव्यवस्था में देश के हर नागरिक को लाभ होता है। ये वो चुनौतियां हैं जिनसे भारत अगले दशक या दो दशकों में निबटने में समर्थ है। 2030 का भारत और 2040 का भारत पूरी तरह से अलग दिखेगा जिसमें हमारी आबादी की रूपरेखा सामाजिक-आर्थिक रूप से काफी बदली हुई होगी। बदले हुए भारत में राजनीति में जाति की भूमिका नगण्य होगी, चुने हुए जन प्रतिनिधिय़ों की क्वालिटी बेहतर होगी और ज़ाहिर है कि ईमानदारी कहीं ज्यादा होगी।

आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा

उपरोक्त मुद्दों का समाधान तो संभव हो सकता है लेकिन भारत राष्ट्रीय सुरक्षा तथा आतंक पर कहां खड़ा है? पंजाब, पूर्वोत्तर तथा दक्षिण में शांति स्थापित की जा चुकी है। देश के मध्य हिस्से में माओवादी हिंसा जारी है। जिन क्षेत्रों में यह हो रहा है वो सीमित हैं और इसके प्रति रुझान अब काफी कम है। जैसे-जैसे भारत का आर्थिक चित्र बेहतर होता जाएगा, माओवादियों के लिए लोकतंत्र को उखाड़ने का प्रयास करने के लिए उग्र आंदोलन करना बहुत कठिन होता जाएगा। राज्य की सुरक्षा शक्ति इस तरह के आंदोलनों से निपटने में पूरी तरह से सक्षम है।

लेकिन यह बात जम्मू-कश्मीर राज्य और वहां हो रहे आंतकवाद के बारे में नहीं कही जा सकती है।

कश्मीर और आंतकवाद

सबसे बड़ा मुद्दा जो भारत के सामने अभी और यहां तक दीर्घकाल में भी रहेगा वह है कि हम जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान प्रायोजित तथा अंदरूनी आतंक का सामना कैसे करेंगे।

कांग्रेस पार्टी इस समस्या की जन्मदाता ही रही है। जब पाकिस्तान कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं मान रहा था तो कांग्रेस पार्टी ने इस मुद्दे को आगे सरका दिया। यह एक ऐतिहासिक भूल थी जिस कारण हम अपने इलाके के एक तिहाई हिस्से से हाथ धो बैठे। पूर्ण एकीकरण के लिए काम करने की बजाय पार्टी ने शेष राष्ट्र और राज्य को एक ढीले-ढाले और उदार संवैधानिक संबंध के तहत रखना चाहा, यह गलत ढंग से सोचकर कि ऐसी व्यवस्था से उसे भारत में मिलाने में मदद मिलेगी। धारा 370 देश और राज्य के बीच संवैधानिक संबंध के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से लाई गई। धारा 35ए 1954 में गपचुप तरीके से लागू कर दी गई। इसने एक अलग मानसिकता को जन्म दिया और भेदभाव को बढ़ावा दिया। नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस संबंध बहुत बड़ा विरोधाभास था। शेख साहब पर पूर्ण विश्वास से लेकर 1953 में उनकी गिरफ्तारी तक, 1976 में उनकी फिर से ताजपोशी से लेकर 1984 में फारूक सरकार की बर्खास्तगी तक और गुलाम मुहम्मद शाह के नेतृत्व में सरकार बनवा देने तक इस तरह की कई चूक हुई। 1957, 1962, 1967 और 1988 के चुनाव में भारी हेराफेरी हुई जिससे लोग और अलग-थलग हो गए। सभी तरह के चेतावनी संकेतों की उपेक्षा कर दी गई और पृथकतावादियों ने 1989-90 में राज्य को लगभग अपने हाथ में ले लिया जिसके चलते हिंसक नागरिक अवज्ञा हुई। अल्पसंख्यकों जिनमें कश्मीरी पंडित और सिख थे, उनपर जुल्म किए गए। एक तरह से अल्पसंख्यकों का सफाया करने का काम किया गया। यूपीए ने ढकोसले वाली नीतियों से 10 वर्ष बर्बाद कर दिये जबकि जमात-ए-इस्लामी और अन्य संकुचित विचारधारा के लोगों ने घाटी में सूफीवाद वाले इस्लाम को कट्टरवादी वहाबी इस्लाम में बदलना शुरू कर दिया। एनडीए ने राज्य में एक क्षेत्रीय दल का समर्थन देने का एक प्रयोग किया। स्पष्ट है कि यह प्रयोग बहुत सफल नहीं रहा क्योंकि पीडीपी जमात-ए-इस्लामी के चंगुल से निकल नहीं पाई। उसके बाद पिछले कुछ महीनों से केन्द्र सरकार ने दो टूक संदेश दिया कि घाटी में आतंकवाद बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हमारे सुरक्षा बलों द्वारा बड़े पैमाने पर आतंकवादियों का सफाया किया जा रहा है। उनके मॉड्यूल को तोड़ा जा रहा है। कानून का शासन प्रभावी रूप से लागू किया जा रहा है। पृथकतावादियों की गतिविधियों को नियंत्रित कर दिया गया है। सीमा पार से आतंकवाद को उसके जड़ पर हमला किया जा रहा है। धारा 370 और धारा 35ए पर हमारा ऐतिहासिक दृष्टिकोण हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा।

आतंक को खत्म करने में कौन उपयुक्त है?

एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए आतंक और सीमा पार से उसे उकसाने वालों से लड़ने की कीमत बहुत होती है। इसमें नागरिकों की जान भी जाती है। हमारे जवान भी मारे जाते हैं। सुरक्षा व्यवस्था नागरिकों के जीवन में हस्तक्षेप करती है। आतंक और उसे रोकने के लिए की गई कार्रवाइयों से सामाजिक तनाव बढ़ता है और झगड़े भी बढ़ते हैं। आतंक के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य में विकास अवरूद्ध हो गया है। पर्यटन को धक्का लगा है। घाटी में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता दोनों इसके शिकार हुये हैं। बड़ी तादाद में सुरक्षा बल तथा उपकरण वहां रखने की लागत बहुत होती है और वह पैसा विकास तथा गरीबी उन्मूलन में जाने की बजाय आतंक और उसे उकसाने वालों से लड़ने पर खर्च होता है।    

जम्मू-कश्मीर, पाकिस्तान का रुख और आंतकवाद भारत के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा कैसे है?

देश के सामने एक बड़ा सवाल यह है कि जम्मू-कश्मीर और आतंकवाद के मुद्दे से लड़ने में कौन सबसे उपयुक्त है। यह समस्या वो नहीं सुलझा सकते हैं जिनकी नीतियों ने इस समस्या को जन्म दिया और अब अपना मार्ग बदलने को तैयार नहीं है। यह उनसे भी नहीं सुलझ सकता है जो आतंक से लड़ाई को वोट बैंक की राजनीति से जोड़ते हैं। यह उनसे भी नहीं सुलझ सकता है जो इस बात पर विश्वास करते हैं कि ढीले-ढाले संवैधानिक जोड़ से एकीकरण हो सकता है। इस विफल घिसे-पिटे राजनीतिक चिंतन को खारिज करना ही होगा। हमारी रणनीति के केन्द्र में जम्मू-कश्मीर के लोगों को रखना होगा। वे भारत से विशेष संबंध के हकदार हैं। वे अवसरों के भी हकदार हैं, उन्हें अवसर, शांति और जीवन की सुरक्षा मिलनी चाहिए। वे आतंक से मुक्ति के हकदार हैं। आंतक विहीन राज्य में सुरक्षा बलों की उपस्थिति खुद ही घट जाएगी।

सीमा पार से समर्थित आतंक नरम तरीके से या तुष्टिकरण की नीति से लड़ा नहीं जा सकता। दो क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका निराशाजनक रही। कुछ समय से दोनों यह कहते आ रहे हैं कि अगर सख्त कदम उठाए जाएंगे तो वे राज्य को अलग करने की वकालत करेंगे। नरम तरीके यहां नहीं चले। विपक्षी नेताओं के वर्तमान नेतृत्व के पास बर्बादी के रास्ते पर जाने के अलावा कोई शायद ही कोई  रोडमैप है।

इस चुनौती को एक ऐसे नये दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए जो आंतक से समझौता करने वाला न हो, कानून का राज्य स्थापित लागू करने में समझौता ना करने वाला हो और पूर्ण तौर पर विलय के लिए प्रतिबद्ध हो। एक मजबूत सरकार और उसके नेता जो सिर्फ एक ही हैं, कश्मीर समस्या का समाधान निकालने में सक्षम हैं। इसके तहत अतीत की ऐतिहासिक गलतियों को अनिवार्य रूप से पलटने की जरूरत होगी।

जम्मू-कश्मीर और आंतक का मुद्दा भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है। यह हमारी संप्रुभता, एकता और सुरक्षा से जुड़ा हुआ है।

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