प्रकीर्ण

“Agenda 2019 - Part - 5 "Prime Minister Modi and Aspirational India Will Prevent India From Becoming a Dynastic Democracy." by Hon'ble Union Minister, Shri Arun Jaitley


15-03-2019

एजेंडा 2019 - पार्ट-5

प्रधानमंत्री मोदी और महात्वाकांक्षी भारत देश को वंशवादी लोकतंत्र बनने से रोकेंगे

-अरूण जेटली

भारत दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला और सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह बहुत महात्वाकांक्षी राष्ट्र है जो दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था भी है। बहुत जल्द हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। इस बात की भी संभावना है कि एक दशक के बाद हम आकार की दृष्टि से चीन और अमेरिका के साथ दुनिया की तीन शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में हों। हमने मध्यम वर्ग का जबर्दस्त विकास देखा है। नव मध्यम वर्ग तो बहुत ही तेजी से बढ़ा है।

किस तरह से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी सरकारें चुनती है? यह नेतृत्व की क्वालिटी, नीतियों, आदर्शों, प्रदर्शन के आधार पर या वंशवाद अथवा पारिवारिक करिश्मा के आधार पर होता है?

कांग्रेस और एक वंशवादी लोकतंत्र का निर्माण

आज़ादी के बाद कांग्रेस पार्टी विशिष्ट राष्ट्रीय नेताओं का एक राजनीतिक समूह थी। फिर भी नेहरू अपनी बेटी को श्रीमती इंदिरा गांधी को अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए तैयार करने लगे। उन्होंने श्रीमती गांधी को कई वरिष्ठ नेताओं को पीछे धकेल कर कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। इससे कई अन्य नेताओं को भी भारत को वंशवादी लोकतंत्र में बदलने का विचार आया। सबसे पहले श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को अपना उत्तराधिकारी बनने के लिए तैयार करना शुरू किया। लेकिन संजय की आकस्मिक मृत्यु ने ऐसा नहीं होने दिया।

उसके बाद उन्होंने अपने बड़े बेटे राजीव गांधी को अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए तैयार किया। राजीव गांधी की दुखद हत्या के बाद भारत कुछ समय के लिए वंशवाद से दूर तो हो गया लेकिन उसे ज्यादा दिनों तक इसकी पकड़ से छुटाकारा नहीं मिल पाया। श्रीमती सोनिया गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष बनी रहीं और बाद में अपने बेटे राहुल को नेतृत्व पकड़ा दिया। इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व की कमान एक खास परिवार की धरोहर रही। अब जबकि पार्टी अस्थिर हो गई है तो उसी परिवार का दूसरा सदस्य भी पटल पर आ गया है।

1991 का बदलाव

कांग्रेस परंपरागत रूप से एक परिवार द्वारा नियंत्रित पार्टी थी। 1991 के बाद देश की राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव आया। ज्यादातर पार्टियां जो 1991 के बाद पैदा हुई थीं, अपने को वंशवादी राजनीति में बदलने लगीं। उनके पास कोई भी संगठित ढांचा नहीं था, न ही कोई संसदीय बोर्ड था और न ही निर्णय करने वाली कोई संस्था। पार्टी का नेता परिवार का प्रमुख होता था। पार्टी का उत्तराधिकार परिवार के अंदर ही होता था। कार्यकार्ता अपने नेता के प्रति ही वफादार होते थे। ज्यादातर नेता करिशमाई होते थे। अधिकतर मामलों में नेता अकूत संपत्ति कमा लेता था। पार्टी को परिवार की व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में चलाया जाता था। सारे फैसले परिवार द्वारा ही किए जाते थे। पूरी पार्टी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती थी।

परिवारों द्वारा राजनीतिक दलों पर नियंत्रण का ऐसा स्पष्ट प्रभाव पड़ा कि यहां तक कि गैर वंशवादी पार्टियों ने अपने परिवारों को पूरे ढांचे को परिवार द्वारा नियंत्रित पार्टी बना दिया। इस प्रकार से जम्मू-कश्मीर से तमिल नाडु तक बहुत कम ही पार्टियां रह गईं जिनमें कोई ढांचा बचा हो। ज्यादातर मामलों में कोई एक व्यक्ति उसे नियंत्रित करता हो। अगर परिवार में बेटा या बेटी ने हो तो भाई या भतीजे को तैयार किया जाता है। परिवार और वंशवाद से जो पार्टियां दूर रहीं वे वामपंथी पार्टियां और शायद कुछ छोटी पार्टियां ही थीं।

वंशवादी इस बात में यकीन करते हैं कि सीमित लोगों में निहित सत्ता वाले शासन में, प्रभुत्व बरकरार रहता है और पार्टी में अनुशासन भी बना रहता है। नेताओं के विचार ही उनके आदर्श होते हैं। उनकी पथभ्रष्टता और सनक को भी आइडियोलॉजी मान लिया जाता है। नेता के तानाशाही रवैये को भी पार्टी के हित में मान लिया जाता है। उन पार्टियों के कई नेता तो पूरी तरह से भ्रष्ट होते हैं। भ्रष्टाचार के आरोप, दुराचार और यहां तक कि जेल जाने से भी पार्टी पर उनकी पकड़ कम नहीं होती है। ऐसी परिस्थितियों में नेता का बचा रहना पार्टी का मुख्य एजेंडा बन जाता है। जब नेता सजा काटते हुए जेल में भी होता है तो कार्डर के दिमाग पर उनकी पकड़ होती है। जब वंशवादी एक गठबंधन को छोड़कर दूसरे में जाते हैं तो कार्डर कोई सवाल नहीं उठाता है। वे इसे सुअवसर ही मानते हैं।

राजनीति, नीतियों और शासन पर प्रभाव

राजनीति, नीतियों और शासन पर इसका प्रभाव वास्तव में विपरीत होता है। वे ठीकठाक सीटें जीत लेते हैं और राज्य या केन्द्र सरकार में अपनी भागीदारी पर दावा करते हैं। वे गठबंधन की राजनीति के गणित में फर्क डालने की क्षमता रखते हैं। इन नेताओं, परिवारों द्वारा नियंत्रित दलों  सार्वजनिक जीवन में आचरण नष्ट हो जाता है, शासन पर भी उसका बुरा प्रभाव पड़ता है। शासन चलाने के आचरण में गिरावट आती है। राजनीति में उनकी बहुत कम रुचि होती है। उनका राजनीतिक आधार उनके अपने बेहतर भविष्य की संभावना पर निर्भर होता है। वे राज्य से जुड़े मुद्दों या पॉपुलिस्ट मुद्दों को ही उठाना पसंद करते हैं। उनकी नीति अपने क्षेत्र को बचाने की रहती है।

दल का अंदरूनी लोकतंत्र और नीतियां इसका शिकार हो जाती हैं। राजनीति में प्रतिभा का आना भी सीमित हो जाता है। कई समझदार नागरिक राजनीति से सदा के लिए निराश हो जाते हैं। कुछ तो नेता और उसके परिवार के सदस्यों की खुशामद में लगे रहते हैं। जब पार्टियां नीति और राज्य व्यवस्था और यहां तक कि शासन पर अयोग्य, अदूरदर्शी और विवेकहीन लोगों को थोप दिया जाता है तो देश को नुकसान होता है। बहुतों ने परिवार आधारित इस प्रणाली को सुविधाजनक पाया तो कई अन्य ने इस प्रथा का विरोध किया और बदलाव करना चाहा। वे कुशल, स्पष्ट और बदलाव लाने वालों की तलाश करने लगे। श्री नरेन्द्र मोदी को गुजरात के मुख्य मंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल के बाद राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति जनता की वंशवाद से मुक्ति की इसी चाहत के कारण मिली। 2013 में बीजेपी संसदीय बोर्ड द्वारा उनके प्रधान मंत्री पद के लिए दावेदारी की घोषणा करने के पहले ही भारत की जनता ने उन्हें स्वीकार कर लिया था।

मोदी फैक्टर

प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी एक बहुत ही साधारण से पृष्ठभूमि से आते हैं। उन्होंने पार्टी के संगठन में काम तब तक किया जब तक उन्हें नेतृत्व नहीं दे दिया गया। जो पद उन्हें मिले उनके लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने वह सब जीतकर दिखाया है। भारत बदल रहा था जबकि वंशवादी कुछ और सोच रहे थे। अगर 2014 के चुनाव के परिणामों का निकटता से विश्लेषण किया जाए तो पाएंगे कि जातिवाद को आधार बनाने वाली बहुत सी पार्टियों को भारी धक्का लगा। परिवार पर आधरित ज्यादातर पार्टियां हार गईं। यह श्री मोदी की लोकप्रियता के ही कारण नहीं हुआ बल्कि इसलिए कि भारत बदल गया था। संचार के बहुमुखी तरीकों और ज्ञान अर्जन से लैस महत्वाकांक्षी भारत ने यह समझ लिया था कि वह अकेले ऐसे योग्य, सक्षम और ईमानदार व्यक्ति हैं जो जनता में विश्वास जगा सकते हैं। सिर्फ एक परिवार की सदस्यता इसका आधार नहीं बन सकती। मुझे पूरा विश्वास है कि 2019 में होने वाले चुनाव में भी यह प्रवृति बनी रहेगी। प्रधान मंत्री मोदी और महत्वाकांक्षी भारत दोनों मिलकर परिवारवाद की अवधारणा को ध्वस्त कर देंगे।

क्या दो वंश एक से बेहतर हैं या फिर इसका विपरीत?

बड़ा प्रश्न है कि क्या वंशवादी पार्टियां 2014 के चुनाव में हुई धुलाई  और 2019 में संभावित पराजय से कोई सबक लेंगी? शायद नहीं। यहां पर ही भारत की जनता को बदलाव लाना होगा। भारत राजतंत्र नहीं है और न ही यह किंगडम है या वंशवादी लोकतंत्र। वंशवादी प्रतिभावान और योग्यत लोगों को पसंद नहीं करते। लोकतंत्र की असली ताकत तब साबित होगी जब वंशवाद का मिथ सदा के लिए तोड़ दिया जाएगा और योग्य तथा सक्षम लोग उन पार्टियों पर अधिकार जमा लेंगे। इससे भारतीयों को बेहतर विकल्प मिलेगा।

एक और विचित्र बात है। ज्यादातर परिवारों में जहां एकछत्र वंशवाद रहा है वहां अब दूसरी पीढ़ी आ गई है। अगली पीढ़ी में एक से ज्यादा उत्तराधिकारी होंगे। दोनों ही उत्तराधिकारी महत्वाकांक्षी हो जाते है और वंश का मुखिया विरासत को बांटेगा। लेकिन हाल के उदाहरण कुछ और बताते हैं। चीनी विद्वान कन्फ्युशियस ने सही कहा था कि आकाश में सिर्फ एक ही सूरज रहेगा। जब वंशवादी उत्तराधिकारियों में बंटवारा होता है तो असल में कौन सम्राट होगा? हरियाणा, बिहार और तमिल नाडु ने भाइयों के झगड़ों को देखा है। उत्तर प्रदेश में तो यह पिता बनाम पुत्र था। आन्ध्र प्रदेश ने तो दामादों का झगड़ा देखा। कर्नाटक में बेटे राज्य पर शासन करने और पोते केन्द्र में शासन करने का प्रयोग कर रहे हैं। महाराष्ट्र में शुरूआती सुगबुगाहट शुरू हो गई है। कांग्रेस ने भी यह प्रयोग करना चाहा है। उसमें यह विश्वास है कि दो मालिक एक से अच्छे हैं। क्या कन्फ्युशिएस सही साबित होंगे और अंततः पहला दूसरे पर हावी हो गया या फिर इसका उलटा होगा। एक तो असफल हो गया। दूसरा तो चल ही नहीं पाया।

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