Hindi version of article "What was the Name of Sardar Patel’s Father" by Hon'ble Union Minister, Shri Arun Jaitley on 27 Nov 2018


27-11-2018
Press Release

 

 

सरदार पटेल के पिता का नाम क्या था

अरुण जेटली,

 

कांग्रेस पार्टी जिस प्रकार से नाम और खानदान का मुद्दा उछालने में लगी है, उससे ये बहस फिर छिड़ी है कि क्या भारत में राजवंशीय लोकतंत्र होना चाहिए। पिछले दिनों प्रधानमंत्री की बुजुर्ग मां की उम्र को राजनीतिक बहस का हिस्सा बना दिया गया। उनके पिता को लेकर टिप्पणी की गई और यह साबित करने की कोशिश की गई कि प्रधानमंत्री बनने के लिए पिता की पहचान जरूरी है। ऐसी दलीलें भी आईं कि अगर आप किसी नामी परिवार की विरासत से आते हैं, तो राजनीतिक लिहाज से यह आपकी बड़ी योग्यता है। जाहिर है ऐसे में साधारण परिवारों से आने वाले लाखों प्रतिभाशाली राजनीतिक कार्यकर्ता कांग्रेस के नेतृत्व परीक्षण में फेल हो जाएंगे। कांग्रेस के लिए योग्यता, प्रतिभा, प्रेरणा और नेतृत्व करने की क्षमता कुछ नहीं है, उसके लिए खानदान का नाम और बड़ा सरनेम ही एक राजनीतिक ब्रांड है।

ऐसे तर्क सुनकर, मैंने अपने कुछ जानकार मित्रों से तीन सवाल पूछे :

(1) गांधी जी के पिता का नाम क्या है?

(2) सरदार पटेल के पिता का नाम क्या है?

(3) सरदार पटेल की पत्नी का नाम क्या है?

मेरे किसी भी जानकार मित्र के पास इन सवालों का कोई निश्चित उत्तर नहीं था। यह कांग्रेस की राजनीति और देश पर उसके प्रभाव की त्रासदी है। गांधी जी ने भारत के सबसे असाधारण स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने राजनीतिक जागरूकता, सत्याग्रह और अहिंसा के माध्यम से एक ऐसा वातावरण बनाया, जिससे अंग्रेजों को भारत पर शासन बनाए रखना असंभव लगने लगा। सरदार पटेल का योगदान किसी से कम नहीं था। स्वतंत्रता आंदोलन की अग्रिम पंक्ति के नेता होने के अलावा, उन्होंने भारत के उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के रूप में अंग्रेजों के साथ सत्ता हस्तांतरण की बातचीत की। उन्होंने 550 से अधिक रियासतों से बातचीत कर भारत को एक करने का काम किया। उन्होंने कुछ ही महीनों के अंतराल में भारत को मौजूदा स्वरूप प्रदान किया। संयोग से, गांधीजी के पिता करमचंद उत्तमचंद गांधी थे, सरदार पटेल के पिता झावरभाई पटेल थे और उनकी पत्नी का नाम दिवाली बा था। हालांकि इतिहासकारों द्वारा व्यापक शोध के बाद भी आज तक उनकी पत्नी की कोई तस्वीर या उनका अन्य कोई विवरण उपलब्ध नहीं हो पाया है।

एक परिवार का आधिकारिक महिमामंडन

इसकी वजह को समझना आसान है। दशकों तक कांग्रेस के शासन में कॉलोनी, इलाके, शहर, ब्रिज, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, स्टेडियम, इन सबके नाम एक ही परिवार के नाम पर रखे जाते रहे। इसके पीछे की नीयत थी - ‘गांधियों’ को देश की रॉयल्टी के रूप में स्थापित करना। उन्हें ‘सरकारी स्तर पर’ भारत के संभ्रांत परिवार के रूप में महिमामंडित किया गया। बाकी किसी का कोई मतलब नहीं था। याद किया जा सकता है कि मुंबई में सरदार पटेल के निधन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने कैबिनेट के अपने सहयोगियों से अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए मुंबई नहीं जाने का अनुरोध किया था। वे सीधे नहीं रोक सकते थे, इसलिए ये कहते हुए अनुरोध किया था कि सरदार पटेल के अंतिम संस्कार के दिन अपने कामकाज करते रहना ही उन्हें सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी। लेकिन उनकी इस सलाह को सबने नकार दिया था। विजय चौक पर सरदार पटेल की प्रतिमा के निर्माण के प्रस्ताव को रिजेक्ट कर दिया गया था। तब संसद मार्ग के एक ट्रैफिक चौराहे पर उनका स्टैच्यू लगाकर देश को मनाया गया था।

बारदोली सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी को लेकर ज्यादातर लोग सरदार पटेल को किसान नेता मानते हैं। लेकिन सरदार पटेल अहमदाबाद के सबसे सफल पेशेवर वकीलों में से एक थे। पंडितजी की चर्चा एक बड़े वकील के रूप में की जाती है, लेकिन अपने पूरे करियर में उन्होंने एक भी केस में जिरह नहीं की थी। वह सांकेतिक रूप से बस एक बार कोर्ट गए थे, जहां वो भूलाभाई देसाई के सहयोगी रहे सीनियर वकीलों के पीछे बैठे थे। लाल किले के अंदर विद्रोह से जुड़े एक मुकदमे की सुनवाई में भोलाभाई तब आजाद हिंद फौज के तीन सेनानियों की ओर से अपनी दलीलें दे रहे थे।

दूसरों की कीमत पर महिमामंडन के खतरे

देश के लिए बड़ा योगदान देने वाले नेताओं की तुलना में किसी एक खानदान का आधिकारिक रूप से महिमामंडन करना, उस पार्टी के साथ-साथ देश के लिए भी घातक है। पटेल और सुभाष चंद्र बोस जैसे महान नेताओं के योगदान को कम करके आंका गया। एक खानदान के लोगों को सबसे महान बताने का काम किया गया। उन्होंने भ्रम का एक ऐसा वातावरण बनाया, जिसमें देश आ गया। पार्टी ने इस खानदान के नेताओं को ही अपनी विचारधारा बना लिया। जब पंडितजी ने अपनी बेटी को अपना उत्तराधिकारी बनाया, तभी उन्होंने भारत में वंशवादी राजनीति की बुनियाद रख दी थी। जब यही बेटी 1975 में तानाशाह में बदल गई तो पार्टी की विचारधारा भी भारत को ‘’अनुशासित लोकतंत्र’’ में बदलने वाली हो गई। जब 1984 में सिखों का नरसंहार हुआ, तो उनके खिलाफ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बिल्कुल सटीक राजनीतिक रणनीति मान लिया गया। भाजपा विरोध आजकल कांग्रेस को ऐसी स्थिति में ले आया है कि वो अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से भी गठजोड़ कर सकती है और माओवादियों, अलगाववादियों और गड़बड़ी फैलाने वालों से सहानुभूति रख सकती है। 

हमने कई क्षेत्रों में देखा है कि वंशवादी नीतियों की कीमत देश को चुकानी पड़ी है। श्रीनगर के दो और नई दिल्ली के एक परिवार यानि कुल तीन परिवारों ने मिलकर 71 साल से जम्मू-कश्मीर की नियति से खेला है। इसके परिणाम स्पष्ट हैं। कांग्रेस के अंदर वंशवादी नेतृत्व के तरीके को देखते हुए कुछ और दूसरे दलों ने भी यही तरीका अपना लिया है। ऐसे संगठनों में ना तो कोई आंतरिक लोकतंत्र है और ना ही इनका कोई आदर्शवादी सिद्धांत है। अपने घोर राजनीतिक विरोधियों की तरफ झुकने या उनसे तालमेल की पूरी छूट है। आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने कांग्रेस का विकल्प बनकर वहां की राजनीतिक शून्यता को भरा था। लेकिन धीरे-धीरे पार्टी का नियंत्रण मौजूदा मुख्यमंत्री के हाथों में चला गया, जो हर आम चुनाव में पाला बदलते रहते हैं। उनकी पार्टी में दूसरी पंक्ति का कोई नेतृत्व है ही नहीं और जो विकल्प दिया है वो सिर्फ “विरोधियों का गठजोड़” ही है।  

वैसे वंशवाद को लेकर सवालों में रहने वाली पार्टियों को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। केवल उसी नेता का राजनीतिक भविष्य होता है, जो वंशवादी पार्टियों के नेताओं को पसंद हो। परिवार के विरुद्ध जाते ही आपको पार्टी से बाहर फेंक दिया जाता है या हाशिए पर डाल दिया जाता है। यहां टैलेंट की कोई जगह नहीं होती है और मेरिट की भी कोई पूछ नहीं। संठनात्मक ढांचे की तो कोई जरूरत ही नहीं होती है। सिर्फ परिवार का करिश्मा ही पार्टी का वोट बैंक होता है। परिवार के इर्द गिर्द की भीड़ ही कैडर बन जाती है।

वंशवादी पार्टियों की कमजोरी

इस मॉडल की एक खास कमजोरी है। पार्टी की ताकत वंश की वर्तमान पीढ़ी की क्षमता से जुड़ी होती है। अगर वर्तमान पीढ़ी गैर प्रेरणादायक या नेतृत्व करने में अक्षम होती है तो पार्टी को अपनी सारी ऊर्जा एक अयोग्य व्यक्ति पर खर्च करनी होती है। इसका परिणाम 44 लोक सभा सीट भी हो सकता है, कभी इससे थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज्यादा। नेता की बचकानी प्रतिक्रिया और अज्ञानता नई विचारधारा बन जाती है। लेकिन यह उम्मीद की किरण है कि भारत बदल रहा है। इसके पास एक बहुत बड़ा मध्यम वर्ग है और एक बड़ा महत्वाकांक्षी तबका मध्यम वर्ग में शामिल होने का आकांक्षी है। यह महत्वाकांक्षी भारत पार्टियों और नेताओं को कड़ी कसौटी पर परखता है। किसी को भी थोप देना उन्हें स्वीकार्य नहीं। वे कठिन और धारदार सवाल पूछते हैं और उनका पैमाना बहुत सख्त है। वे ईमानदार नेताओं की तलाश में रहते हैं, वे उन्हें प्रेरित कर सकने वाले, दृढ़ व देश का नेतृत्व कर सकने वाले समर्थ लोगों की खोज में रहते हैं। उनके लिए उपनाम का कोई महत्त्व नहीं, योग्यता और क्षमता का महत्त्व होता है।

2019 की चुनौती

भारतीय लोकतंत्र की मजबूती तभी और सामने आएगी जब कुछ परिवारों का करिश्मा पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया जाए और पार्टियों द्वारा एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से योग्य और क्षमतावान नेताओं को आगे बढ़ाया जाए। 2014 में ऐसा साबित भी हुआ है, जब ज्यादातर वंशवादी पार्टियां बुरी तरह से चुनाव हार गईं। 2019 का भारत 1971 के भारत से अलग है। अगर कांग्रेस पार्टी यह चाहती है कि 2019 की लड़ाई कम चर्चित माता-पिता के बेटे मोदी और अपनी क्षमता व योग्यता की बजाए अपने माता-पिता की वजह से चर्चा में रहने वाले के बीच हो, तो बीजेपी खुशी-खुशी यह चुनौती स्वीकार करेगी। इसे 2019 के लिए एजेंडा बनने दें।

 

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