श्री लालकृष्ण आडवाणी

1980 में भारतीय जनता पार्टी के गठन के बाद से ही आडवाणी जी वह शख्स हैं जो सबसे ज्यादा समय तक पार्टी में अध्यक्ष पद पर बने रहे हैं। बतौर सांसद 3 दशक की लंबी पारी खेलने के बाद आडवाणी जी पहले गृह मंत्री रहे, बाद में अटल जी की कैबिनट में (1999-2004) उप-प्रधानमंत्री बने

आडवाणी जी को बेहद बुद्धिजीवी, काबिल और मजबूत नेता माना जाता है जिनके भीतर मजबूत और संपन्न भारत का विचार जड़ तक समाहित है। जैसा की अटलजी बताया करते थे, आडवाणी जी ने कभी राष्ट्रवाद के मूलभूत विचार को नहीं त्यागा और इसे ध्यान में रखते हुए राजनीतिक जीवन में वह आगे ब़ढ़े हैं और जहां जरूरत महसूस हुई है, वहां उन्होंने लचीलापन भी दिखाया है।

आडवाणी जी का जन्म 8 नवंबर 1927 को सिन्ध प्रान्त (पाकिस्तान) में हुआ था। वह कराची के सेंट पैट्रिक्स स्कूल में पढ़ें हैं और उनके देशभक्ति के जज्बे ने उन्हें राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया। वह जब महज 14 साल के थे, उस समय से उन्होंने अपना जीवन देश के नाम कर दिया।

1947 में आडवाणी जी देश के आजाद होने का जश्न भी नहीं मना सके क्योंकि आजादी के महज कुछ घंटों में ही उन्हें अपने घर को छोड़कर भारत रवाना होना पड़ा। हालांकि उन्होंने इस घटना को खुद पर हावी नहीं होने दिया और मन में इस देश को एकसूत्र में बांधने का संकल्प ले लिया। इस विचार के साथ वह राजस्थान में आरएसएस प्रचारक के काम में लगे रहे।

1980 से 1990 के बीच आडवाणी जी ने भाजपा को एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनाने के लिए अपना पूरा समय दिया और इसका परिणाम तब सामने आया, जब 1984 में महज 2 सीटें हासिल करने वाली पार्टी को लोकसभा चुनावों में 86 सीटें मिली जो उस समय के लिहाज से काफी बेहतर प्रदर्शन था। पार्टी की स्थिति 1992 में 121 सीटों और 1996 में 161 पर पहुंच गई। आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस सत्ता से बाहर थी और बीजेपी सबसे अधिक संख्या वाली पार्टी बनकर उभरी थी।

अच्छे पारिवारिक संबंधों वाले भावुक आडवाणी जी ने उस समय कहा, ‘प्रकृति हमारे सामने खुशहाली और उनके मायने सामने ला कर रख देती है ताकि हम खुद उनमें से चुन सकें लेकिन मुझे भारी मात्रा में दोनों प्राप्त हुए हैं।‘

आज आडवाणी जी भारत के लोगों से सही निर्णय लेने के लिए कहते हैं, ऐसा नेता चुनने के लिए कहते हैं, जिसने भारत का अतीत देखा हो। जो कल से आज ज्यादा मजबूत होकर खड़ा हो, जो यह सुनिश्चित कर सके कि हर बीतते दिन के साथ भारत और ज्यादा तरक्की करे, आगे बढ़े और मजबूत हो।

लालकृष्ण आडवाणी: एक परिचय

जन्म: 8 नवंबर 1927
पिता का नाम: किशन चंद आडवाणी
माता का नाम: ज्ञानी देवी आडवाणी

  • 1936-1942– कराची के सेंट पैट्रिक्स स्कूल में पढ़ाई, 10वीं तक रह क्लास में किया टॉप
  • 1942– राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ में शामिल हुए
  • 1942– भारत छोडो आंदोलन के दौरान गिडूमल नैशनल कॉलेज में दाखिला।
  • 1944– कराची के मॉडल हाई स्कूल में बतौर शिक्षक नौकरी
  • 12 सितंबर, 1947– बंटवारे के बाद सिंध से दिल्ली के लिए रवाना
  • 1947-1951– अलवर, भरतपुर, कोटा, बुंडी और झालावार में आरएसएस को संगठित किया
  • 1957-अटल बिहारी वाजपेयी की सहायता के लिए दिल्ली शिफ्ट हुए।
  • 1958-63– दिल्ली प्रदेश जनसंघ में सचिव का पदभार संभाला.
  • 1960-1967– ऑर्गनाइजर में शामिल, यह जनसंघ द्वारा प्रकाशित एक मुखपत्र है।
  • फरबरी 25, 1965– श्रीमती कमला आडवाणी से विवाह, प्रतिभा एवं जयंत-दो संतानें
  • अप्रैल 1970– राज्यसभा में प्रवेश
  • दिसंबर 1972– भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष नियुक्त किए गए।
  • 26 जून, 1975– बैंगलोर में आपातकाल के दौरान गिरफ्तार, भारतीय जनसंघ के अन्य सदस्यों के साथ जेल में कैद।
  • मार्च 1977 से जुलाई 1979– सूचना एंव प्रसारण मंत्री
  • मई 1986- भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बने
  • 1980-86– भारतीय जनता पार्टी के महासचिव बनाए गए
  • मई 1986– भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बनाए जाने का ऐलान.
  • 3 मार्च 1988– दोबारा पार्टी अध्यक्ष बने।
  • 1988– सरकार में बने गृह मंत्री
  • 1990– सोमनाथ से अयोध्या, राम मंदिर रथ यात्रा का शुभारंभ
  • 1997- भारत की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती मनाते हुए स्वर्ण जयंती रथ यात्रा का उत्सव
  • अक्टूबर 1999 – मई 2004 - केंद्रीय कैबिनेट मंत्री, गृह मंत्रालय
  • जून 2002 – मई 2004 - उप-प्रधानमंत्री

 

यात्रायें : श्री लाल कृष्ण आडवाणी

एक यात्रा, एक सफ़र, एक तीर्थ यात्रा। ये शब्द एक प्राचीन भारत की परंपरा को दर्शाता है, जिसने पिछली सदी में एक नया रूप ले लिया।

यात्रायें :

ये परंपरा आज विश्व भर की धरोहर है, लेकिन इसकी जड़ें भारतीयता में गहराई के साथ समाई हुई हैं।

ये परंपरा जो प्राचीन और नवीन के बीच एक पुल की तरह है, जो अतीत को वर्तमान से जोडती है।

ये एक ऐसी परम्परा है जो सबको साथ ले आती है। सबको सहयोगी बनाती है, इन्हीं कारणों से पूज्य मानी जाती है।

सन 1990 में जब देश विकट परिस्थितियों से जूझ रहा था, जातिवादी तत्व एक तरफ हमारी एकता और अखंडता को तार-तार करने पर तुले हुए थे, दूसरी तरफ छद्म धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार धर्म के आधार पर देश को बांटना चाहते थे, उस दौर में श्री लाल कृष्ण आडवाणी आगे आये और इन राष्ट्र विरोधी ताकतों को करारा जवाब दिया। उनके आन्दोलन ने राष्ट्रवाद की दबी कुचली भावनाओं को नयी जगह ही नहीं दी, बल्कि हमारे देश के उच्च नैतिक आदर्शों को भी पुनः प्रतिष्ठित किया।

बरसों में पहली बार एक परंपरा, हमारे देश के जन मानस के विचारों को सामने लाने का वाहक बनी। श्री अडवाणी ने अपनी रथ यात्रा एक ऐसे दौर में शुरू की जब लोग दिल्ली में बैठे अपनी सत्ता को जाति और धर्म के बंटवारे से मजबूती देने पर तुले थे। भारतीय जनता पार्टी, रथ यात्रा के जरिये, अपना सन्देश जन जन तक ले गई। ये एक ऐसी यात्रा थी जो भारत के चमकदार समुद्र तट से शुरू होकर हिमालय की ऊँचाइयों तक गई। ये किसी ईंट-पत्थर को जोड़कर एक मंदिर बनाने की यात्रा भर नहीं थी। ये राष्ट्र की भावनाओं से अपने एक पूज्य को उनका सही स्थान दिलाने की यात्रा थी।

सुप्तावस्था में पड़े राष्ट्रवाद की भावनाओं को इस यात्रा ने जगा दिया। ये जन मानस की भावनाओं को एक शक्तिशाली अस्त्र में बदल देने का यज्ञ था, जिसने भारत की सांस्कृतिक एकता को फिर से राष्ट्र विरोधी शक्तियों के मुकाबले में ला खड़ा किया है।

जब देश फिरंगी शासन की बेड़ियों को उतार फेंकने की अपनी स्वर्ण जयंती मना रहा है तब श्री अडवाणी ने एक और यात्रा की सोची है। ये राष्ट्रवाद का उत्सव है, जिसका प्रसार देश के विशाल भू-भाग तक होगा। जो सपने भारतीय लोगों ने पंद्रह अगस्त 1947 को देखे थे उनका पुनः जागरण होगा। ये उन वीरों को श्रद्धांजलि है जिन्होंने राष्ट्र की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति दी।

पिछले आठ वर्षों में यह भाजपा की पांचवी यात्रा है। आज जब स्वर्ण जयंती यात्रा देश में शुरू हो रही है, तो ये एक उचित अवसर है पिछले चार यात्राओं को एक बार याद कर लेने का, साथ ही ये भी याद करने का कि इन यात्राओं ने देश को क्या सन्देश दिया।

राजनीतिक सफर की शुरुआत

करोड़ों लोगों की तरह आफरा-तफरी के माहौल में आडवाणी जी ने 12 सितंबर, 1947 को अपना घर छोड़ा और साथी स्वंयसेवकों के साथ दिल्ली के लिए रवाना हुए। सिंध के आडवाणी में भारत आने के बाद परिवर्तन आया और वह आरएसएस के प्रचारक बन गए।

सिंध से आने वाले सभी प्रचारकों और वरिष्ठ नेताओं को जोधपुर में इकट्ठा होने के लिए कहा गया ताकि आने वाले दिनों के लिए योजना का निर्माण किया जा सके। आरएसएस नेताओं ने सिंध से आने वाले स्वंयसेवकों को निर्देश दिए कि वह बंटवारे के बाद आकर रह रहे लोगों की सहायता करें। आडवाणी जी और अन्य सभी लोग इसी प्रकार से आने-जाने वाले प्रवासियों की मदद में जुटे थे और उन्हें राहत मुहैया करवा रहे थे।

जोधपुर कैंप के खत्म होने के बाद, उन्हें और अन्य लोगों को राजस्थान के कई इलाकों में भेज दिया गया ताकि वह लोग संघ के लिए अपने कार्य जारी रखें। अगले एक दशक तक राजस्थान ही उनकी कर्मभूमि बनकर रहा, पहले प्रचारक के तौर पर और फिर भारतीय जनसंघ के पूर्णकालीन कार्यकर्ता के तौर पर..

1957 में आडवाणी जी से राजस्थान छोड़कर दिल्ली आने के लिए कहा गया जिससे कि वह लोग अटल जी और नवनिर्वाचित सासंदोंकी मदद कर सकें। इसके बाद दिल्ली इनके काम और राजनीति का अखाड़ा बन गई। अपनी जिम्मेदारियों से उन्होंने संसद के काम करने के तरीके को सीखा और जनसंघ के लिए सवाल-जवाब एवं पार्टी की नीतियों को तय करने का काम करते रहे।.

राजनीति में आडवाणी जी का प्रवेश नगरपालिका से हुआ। पार्टी की संसदीय विंग में काम करने के अलावा उनसे कहा जाता था कि वह दिल्ली की जनसंघ इकाई का बतौर महासचिव भार संभालें। पार्टी कांग्रेस के खिलाफ थी जो उस समय अपने शिखर पर थी, ऐसे में 80 के सदन में जनसंघ ने 25 सीटें जीती, जो कांग्रेस से महज 2 कम थीं।

सीपीआई में 8 सदस्य थे, बिल्कुल सटीक मात्रा जो या तो कांग्रेस को जीता सकते थे या जनसंघ को..

चुनाव के बाद, सीपीआई के बाद ने जनसंघ को हराने के लिए कांग्रेस को सहयोग देने के लिए कहा लेकिन इसके लिए शर्त रखी गई कि प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी अरुणा असिफ अली को दिल्ली का पहला मेयर बनाया जाए। उस वक्त कांग्रेस ने यह शर्त मान ली लेकिन बाद में महज 1 ही साल में आंतरिक विवादों के कारण कांग्रेस और सीपीआई का यह गठबंधन टूट गया।

इसके बाद जनसंघ और सीपीआई एक लिखित समझौते के माध्यम से साथ आए जिसमें कहा गया कि मेयर और डिप्टी मेयर की पोस्ट दोनों पार्टियों के साथ साझा की जाएंगी। यानी पहली मेयर अरुणा असफ अली होंगी और दूसरे मेयर केदारनाथ साहनी होंगे, बाद में केदारनाथ साहनी मेयर होंगे और दूसरा मेयर सीपीआई से किसीको बनाया जाएगा..

आडवाणी जी के लिए यह राजनीतिक नेतृत्व और रणनीति के निर्माण में बेहद अच्छी पहल थी। उन्होंने कहा, ‘मैं अब आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं कि यहां से मेरी जमीनी राजनीति की शुरुआत हुई है, कुछ ऐसा जिसने मुझे कई दशकों तक अपने साथ रखा।‘

ऑर्गनाइजर के साल

राजस्थान से दिल्ली आने के बाद सबसे पहला घर जिसमें आडवाणी जी रहे थे, वह अटल जी का आधिकारिक निवास था, 30 राजेन्द्र प्रसाद रोड। दिल्ली में दफ्तर में करीब 3 साल तक काम करने के बाद आडवाणी जी ने अपने जीवन का एक नया अध्याय बतौर पत्रकार शुरू किया। 1960 में उन्होंने ऑर्गनाइजर में सहायक संपादक का पदभार ग्रहण किया। ऑर्गनाइजर एक हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका थी जो कि आरएसएस की विचारधारा से प्रभावित थी।

1947 में स्थापित ऑर्गनाइजर का पाठक वर्ग काफी कम था लेकिन बुद्धिजीवी वर्ग के बीच इसकी गूंज हो चुकी थी। इसके संपादक के आर मलकानी एक बढ़िया लेखक थे जिन्हें आडवाणी जी पसंद थे और वह भी सिन्ध से आए थे। मलकानी जी के काबिल नेतृत्व में ऑर्गनाइजर आरएसएस और जनसंघ के विरोधियों और साथ वालों के बीच काफी लोकप्रिय होने लगा।

एक दिन संपादकीय बैठक हुई जिसमें इस बात पर चर्चा हो रही थी कि पत्रिका काफी सतही है और इसमें केवल राजनीतिक विषयों पर सामग्री परोसी जाती है। तय किया गया कि इसमें सिनेमा जैसे तत्व जोड़े जाएंगे। आडवाणी जी जिन्हें फिल्मों का काफी शौक था, वह इस बात से खुश हो गए और नेत्र नाम से सिनेमा और थिएटर पर लेखन करने लगे।

संसदीय करियर

ऑर्गनाइजर के साथ आडवाणी जी की 7 साल लंबी पारी अचानक 1967 में खत्म होने को आ गई। दिल्ली की राजनीति में एक नई जिम्मेदारी आ गई थी। दिल्ली को 1952 में पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया था लेकिन 1955 में केन्द्र सरकार ने इसके पूर्ण राज्य होने के फैसले को राज्य की पुनः संगठन आयोग की सिफारिशों का हवाला ने रोक दिया।

यह नागरिकों और जनसंघ को मंजूर नहीं था, जनसंघ ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की। 1967 में 5 महीनों के अंतराल में दिल्ली में 3 चुनाव हुए और लगभग एकसाथ, लोकसभा चुनाव, मेट्रोपॉलिटन काउंसिल और नगरपालिका के चुनाव।

जनसंघ ने तीनों चुनावों में काफी अच्छा किया। आडवाणी जी की पार्टी ने लोकसभा में 7 में से 6 सीटें हासिल की, काउंसिल में 56 सीटों में से 33 और 100 में से 52 सीट नगरपालिका में हासिल की थी। 1962 में 14 सीटों से 1967 में 35 सीटों तक जनसंघ भारतीय राजनीति पर धीरे-धीरे हावी होने लगा।

आडवाणी जी ने काउंसिल चुनाव नहीं लड़े क्योंकि उन्हें पार्टी की शहरी इकाई की जिम्मेदारी 3 चुनाव तक सौंपी गई थी, दिल्ली मेट्रोपॉलिटन एक्ट के अनुसार केन्द्रीय गृह मंत्रालय 5 लोगों को काउंसिल में नामांकन दे सकता था।

इस नियम का इस्तेमाल करते हुए अटल जी ने केन्द्रीय मंत्री वाय बी चावन से आडवाणी जी के लिए नामांकन दाखिल करने को कहा। तब पार्टी ने उन्हें काउंसिल अध्यक्ष के पद के लिए उम्मीदवार का नामांकन कर दिया। आडवाणी जी चुनाव जीत गए और काउंसिल अध्यक्ष बन गए। विजय कुमार मल्होत्रा, जनसंघ में उनके साथी, काउंसिल के चीफ एक्जिक्यूटिव बने।

राज्य सभा में प्रवेश

अप्रैल 1970 में इन्द्र कुमार गुजराल का कार्यकाल पूरा होने पर राज्य सभा में एक नियुक्ति थी, पार्टी ने आडवाणी जी को आगे बढ़ाया और काउंसिल में बहुमत होने के कारण आडवाणी जी को वह जगह मिल गई। उसके बाद आडवाणी जी दिल्ली मेट्रोपॉलिटिन काउंसिल के अध्यक्ष के दफ्तर से संसद भवन पहुंच गए।

राज्य सभा में अपने शुरुआती भाषणों में आडवाणी जी ने देशहित के मुद्दों पर जोर दिया, जैसे देश को मजबूत बनाए रखना, लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना, कैसे विपक्ष-पक्ष को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए और किस प्रकार राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को आपस में मिलजुलकर काम करने की जरूरत है।

पार्टी अध्यक्ष

अटल जी जो फरवरी 1968 में पार्टी के अध्यक्ष थे, 1971 के आम चुनावों के बाद अब पद से मुक्त होने की बात सोच रहे थे। अटल जी ने आडवाणी जी से पार्टी का अध्यक्ष बनने को कहा, क्योंकि वह पहले ही चार साल पूरे कर चुके थे और अब दूसरों को मौका देना चाहते थे।

आडवाणी जी बार-बार मना करने पर अड़े थे क्योंकि उन्हें ऐसा लगता था कि वह अच्छे वक्ता नहीं हैं और जब जनसभा की बात आती है तो वह काफी घबरा जाते हैं। जबकि अटल जी अपनी वाकपटुता से आसानी से लोगों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। अटल जी के समझाने पर दिसंबर 1972 में आडवाणी जी भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने।

आपातकाल और जनसंघ

25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लागू कर दिया और अपना तानाशाही शासन कायम कर लिया। उन्होंने आदेश दिया कि सभी विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में कैद कर दिया जाए। उन्होंने आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया। अटल जी और आडवाणी जी उस समय बैंगलोर में थे जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया।

जब 18 जनवरी, 1976 को चुनाव का ऐलान हुआ तो अटल जी को वापस दिल्ली भेजा गया। देश में राजनीतिक उथल-पुथल मच गई और जिस समय चुनावों का ऐलान हुआ उसी समय जयप्रकाश नारायण ने जनता पार्टी के गठन का ऐलान कर दिया। 28 सदस्यों वाली पार्टी का ऐलान हुआ जिसकी अध्यक्षता मोरारजी देसाई कर रहे थे और चरन सिंह उपाध्यक्ष थे। जनता पार्टी के सदस्य 4 पार्टियों से थे। कांग्रेस, जनसंघ, समाजवादी पार्टी और लोक दल जिन्होंने एकसाथ आकर इस नई पार्टी का गठन किया जाए।

आडवाणी जी, मधु लिमये, राम धान और सुरेन्द्र मोहन इसके 4 महासचिव थे।

21 मार्च 1977 को आपातकाल वापस ले लिया गया। चुनाव हुए और परिणामों में जनता पार्टी 542 में से 295 सीटों के बहुमत के साथ जीत गई

सूचना एवं प्रसारण मंत्री

24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई ने भारत के पांचवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। 2 दिन बाद कैबिनट का शपथ ग्रहण था। आडवाणी जी जनसंघ में उन तीन लोगों में एक थे जो नई सरकार में शामिल हुए थे। अटल जी को विदेश मंत्री बनाया गया था जबकि ब्रिजलाल वर्मा को उद्योग दिया गया था। प्रधानमंत्री ने आडवाणी जी से पूछा कि उन्हें कौन-सा पोर्टफॉलियो चाहिए, बिना किसी झिझक के उन्होंने कह दिया, सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय

आडवाणी जी को लगता था कि बतौर पत्रकार उन्होंने जो काम किया था, उससे उन्हें मीडिया से जुड़े मामलों की समझ और उनमें रुची पैदा हो गई थी। उन्होंने सुना भी था कि कैसे आपातकाल के दौरान मीडिया से सबकुछ छीन लिया गया था, वह उसे बदलना चाहते थे।

राज्यसभा में भी उन्होंने दूरदर्शन और एआईआर को स्वायत्त बनाने की मांग उठाई ओर उन्होंने इस मांग को लेकर प्रस्ताव पेश करने की बात कही और यह विचार करते ही उन्होंने एक विशेष समिति बनाई और बिना किसी देरी के यह कार्य पूरा हो गया और अगस्त, 1977 को यह संसद में पेश किया। सूचना एवं प्रसारण मंत्री के तौर पर आडवाणी जी ने 2 बिल लोकसभा में पेश किए। पहला आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर लगी रोक के विरुध्द और दूसरा था ससंदीय कार्यवाही एक्ट जिसे फिरोज गाँधी एक्ट के नाम से भी जाना जाता है। दोनों बिल सदन में काफी उत्साह के साथ पारित हुए।

उन्होंने दूरदर्शन और एआईआर को स्वायत्त बनाने की मांग को लेकर सदन के भीतर और बाहर कई चर्चाएं शुरू की, इसके लिए बीजी वर्घीस की अध्यक्षता में एक समूह बनाया गया। प्रसार भारती की अवधारणा इस समूह की सिफारिशों में शामिल थी।

उन्होंने प्रसार भारती बिल 1977 में सदन में पेश किया लेकिन यह राज्यसभा में पारित नहीं हो सका क्योंकि राज्यसभा में कांग्रेस बहुमत में थी और वह इस बिल के विरोध में थी।

दुर्भाग्यवश, जनता पार्टी की सरकार ज्यादा चल ही नहीं सकी और पार्टी को अपना आधा कार्यकाल पूरा करने से पहले ही जाना पड़ा। मोरारजी देसाई ने बतौर पीएम इस्तीफा दे दिया। एक के बाद एक धोखे हुए और चरन सिंह (उप-प्रधानमंत्री) जो मोरारजी के बाद सत्ता में आए थे, वह भी इसे नहीं चला सके और इस्तीफा दे दिया।

चरन सिंह के इस्तीफे के बाद जनता पार्टी ने जगजीवन राम के सहयोग से सरकार बनाने का दावा पेश किया लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने इस पर ध्यान न देते हुए लोकसभा को 22 अगस्त 1979 को भंग कर दिया। इस तरह से 1980 में देश में दोबारा चुनाव होने की नौबत आ गई।

एक बार फिर इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आ गईं। ‘द पीपल बिट्रेड’ नामक किताब में इस दौर की पूरी घटनाओं को काफी विस्तार से बताया गया है, क्योंकि यह मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के तुरंत बाद और 1980 चुनाव से पहले आई थी।

आडवाणी जी कहते हैं, ‘जब आज उन घटनाओं के बारे में सोचता हूं तो ध्यान जाता है कि जो निष्कर्ष मैंने तब निकाले थे, वह आज भी उतनी ही सच हैं।‘

बीजेपी के संस्थापक सदस्य

5-6 अप्रैल 1980 को 2 दिन के राष्ट्रीय सम्मेलन में एक अजीब भावना का बहाव हुआ, एक संकल्प की बात हुई। दिल्ली के फिरोज शाह ग्राउंड में 3500 प्रतिनिधी इकट्ठे हुए और भारतीय जनता पार्टी नामक एक नए संगठन का गठन हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का पहला अध्यक्ष चुना गया और सिकंदर भक्त एवं सुरज भान को महासचिव की जिम्मेदारी दी गई थी।

1984 में चुनाव से कुछ समय पहले ही इंदिरा गांधी की हत्या हो गई जिससे कांग्रेस को भावनात्मक जीत प्राप्त हुई और बीजेपी की संख्या बेहद कम रही, वहीं कांग्रेस को रेकॉर्ड जीत मिली। इसके बाद आडवाणी जी को पार्टी अध्यक्ष घोषित कर दिया गया।

1980 की शुरुआत में विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में राम जन्मभूमि के स्थान पर मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन की शुरुआत करने लगी। आडवाणी जी के नेतृत्व में बीजेपी राम मंदिर आंदोलन का चेहरा बन गई। यह माना जाता है कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान पर हुआ है और मुगल शासक बाबर ने वहां मंदिर तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया था।भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने भी इस बात पर सहमति जताई है कि वहां वाकई एक मंदिर हुआ करता था। हालांकि मंदिर के तोड़े जाने पर इन्होंने कुछ नहीं कहा।

1988 के चुनावों में कांग्रेस जीत के बावजूद सरकार नहीं बना सकी और इसलिए वीपी सिंह की सरकार आई। नई सरकार के लिए बीजेपी की सहयोग जरूरी था। 1991 के आम चुनावों में बीजेपी को कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा सीटें मिली। 1991-1996 तक पार्टी आडवाणी जी के नेतृत्व में पी वी नरसिम्हाराव की सरकार के दौरान सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनी।

बतौर गृह मंत्री

1996 के आम चुनावों में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी और राष्ट्रपति ने भी बीजेपी को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया। हालांकि यह सरकार बेहद कम समय के लिए रही और 13 दिन बाद ही गिर गई।

दूसरा कार्यकाल 1998–1999

मार्च 1998 में बीजेपी-शासित एनडीए वापस सत्ता में आया और अटल जी एक बार फिर प्रधानमंत्री बने। इससे पहले देश ने इन्द्र कुमार गुजराल और एच डी देवगौड़ा के रूप में 2 अस्थाई सरकारें देखी।

1996 से 1998 के बीच यूनाइटेड फॉन्ट की 2 सरकारों (इन्द्र कुमार गुजराल और एच डी देवगौड़ा) के गिरने के बाद लोकसभा में अटल जी के नेतृत्व में सरकार बनाई। एनडीए ने लोकसभा में सबसे ज्यादा सीटें हासिल की थीं। लेकिन सरकार केवल 13 हफ्तों तक टिक सकी क्योंकि तमिलनाडु की नेता जयललिता ने अपना सहयोग वापस ले लिया था। बहुमत न होने की स्थिति में एकबार फिर लोकसभा भंग हो गई लेकिन अटलजी चुनाव होने तक प्रधानमंत्री बने रहे।

कारगिल युद्ध के कुछ समय बाद, 1999 में दोबारा चुनाव हुए। 13वें लोकसभा चुनाव देश के इतिहास में ऐतिहासिक साबित हुआ, क्योंकि ऐसा पहली बार हो रहा था कि संयुक्त मोर्चे की पार्टियों को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था और एक स्थायी सरकार ने 5 साल का अपना कार्यकाल पूरा किया था। इस सरकार का नेतृत्व अटल जी ने किया था और इस तरह से राजनीतिक अनिश्चितता के एक दौर का अंत हुआ था। इस दौर की एनडीए सरकार ऐसी इकलौतीगैर-कांग्रेसी सरकार थी जो 5 साल का कार्यकाल पूरा करने में सफल रही।

आडवाणी जी ने गृह मंत्री का पदभार संभाला और बाद में उप-प्रधानमंत्री बने। केन्द्रीय मंत्री के तौर पर आडवाणी जी कई बार पाकिस्तान से तल्ख मुद्दों पर टक्कर लेते नजर आए हैं।

2004 में भाजपा को पराजय मिलीऔर वो विपक्ष में बैठ गई, इसके बाद से ही अटल जी ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और आडवाणी जी 2004 से 2009 तक लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बने रहे।

आडवाणी जी और संघ के रिश्तों में कमजोरी तब आई जब संघ प्रमुख के. एस. सुदर्शन ने कहा कि आडवाणी और अटल जी को नए लोगों को जगह देनी चाहिए, हालांकि आडवाणी जी ने इसे सकारात्मक रूप से लिया और भाजपा के 25 वर्ष पूरे होने पर 2005 दिसंबर में पार्टी अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया। उनकी जगह संभाली राजनाथ सिंह ने जो कि उत्तर प्रदेश के काफी कनिष्ठ और युवा नेता के रूप में सामने आए।

प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार

2009 के चुनावों में आडवाणी जी नेता प्रतिपक्ष थे, इसलिए यह माना जा रहा था कि वह आगामी चुनावों जो 16 मई, 2009 को खत्म होने वाले थे, में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। आडवाणी जी के पक्ष में सबसे बड़ी बात यह थी कि आडवाणी जी बीजेपी के सबसे ताकतवर नेता रहे हैं और उनके अलावा सिर्फ अटल जी इतने शीर्ष पर मौजूद थे, लेकिन अटल जी खुद भी आडवाणी जी के पक्ष में थे।

10 दिसंबर, 2007 को भाजपा के संसदीय बोर्ड ने यह औपचारिक ऐलान किया कि 2009 के आम चुनावों के लिए लालकृष्ण आडवाणी ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे लेकिन जब कांग्रेस और उसके गठबंधन के लोग चुनाव जीत गए और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद पर दोबारा काबिज हो गए तो आडवाणी जी ने 15वीं लोकसभा में सुषमा स्वराज को नेता प्रतिपक्ष बनाया।